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कविता

तब दुखरन

सर्वेंद्र विक्रम


तब दुखरन, किसके लिए बैठे हो
अब भी है आशा ?

वे तफरीह पर थे या शिकार पर, कुछ पता चला
अपनी जगह से हिली हुई आवाजें किसकी थीं
वे किसे खोज रहे थे ?

क्या कहते हो, पता नहीं चला उनके आने का !
उन्होंने तो जाने कब से शुरू कर दिया था अहसास कराना
वे जाना चाहते हैं स्मृतियों में फायदा उठाना चाहते हैं खेल में,
न कोई पर्दा न छिपाने की कोशिश

जलने की गंध आई? रोटी, सपने हैं या आँखें ?
कंधे पर लकड़ियाँ लादे जलाने ले जा रहे हो या दफनाने
बांधोगे मुरैठा उधर जाने से पहले ? खाली हाथ ?
जाओ तो देखोगे कई तरह के लोग टकटकी बांधे
बैठे होंगे अलग-अलग झुंड में
फिर कुछ लोग आएँगे अलग-अलग गाड़ियों में
थोड़ी सी जगह देकर थोड़े से लोगों को लेकर आगे बढ़ जाएँगे,
अधिकांश को वहीं छोड़कर
(यही चलन है)
तब चमक उठेगा भविष्यवक्ताओं सपना दिखाने वालों का धंधा

कुछ कहोगे, नई व्याख्या करोगे या जाओगे
जड़ों की ओर गहरे और गहरे, संतों की तरह
देखोगे इसका अंत कहाँ है ?
लिखोगे आग की पृष्ठभूमि में

पानी के बारे में प्रेम की कविताएँ ?

हाल मालूम हो, सहज नहीं रह गया है अन्नजल
पिछले साल जो लोग गए थे इधर से, उनके पीछे
बच्चे बड़े हो रहे हैं सब देख सुन समझ रहे हैं
आशा करते हैं वे भी जाएँगे एक दिन
रात होते ही डरने लगते हैं
वे भी जल्दी मरेंगे


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